डायबिटिक रेटिनोपैथी के नये शोध को लंदन के प्रतिष्ठित जर्नल में मान्यता

0
682

 

Advertisement

 

 

लखनऊ। डायबिटिक रेटिनोपैथी में फस्र्ट रेटिनल स्ट्रक्चरल बैरियर रेटिना का बाहरी सीमित झिल्ली (ईएलएम) है, पर किये गये शोध को किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय में नेत्र विज्ञान विभाग के प्रो. संदीप सक्सेना ने किया है आैर नयी क्लीनिकल जानकारी का पता लगाया है। इस शोध अध्ययन से मधुमेह के रोगियों में आंखों की रोशनी के नुकसान को दूर करने में मदद मिलेगी। शोध अध्ययन को लंदन के रॉयल कॉलेज ऑफ ऑप्थेलमोलॉजिस्ट के प्रतिष्ठित जर्नल में मान्यता मिली है।
बताते चले कि वर्ष2013 में इस विषय पर शोध कर्ताओं ने पता लगाया था कि डायबिटिक रेटिनोपैथी में पहली संरचना बाधित होती है। ईएलएम के विघटन की गंभीरता मधुमेह रेटिनोपैथी की गंभीरता से मेल खाती है। इस विषय पर लगातार शोध कर रहे शोध कर्ताओं ने हाल ही में पाया कि एंटी वीईजीएफ थेरेपी के उपयोग से ईएलएम के बाधित क्रिया शीलता को पुनः संचालित किया जा सकता है। इस खोज ने ईएलएम को डायबिटिक रेटिनोपैथी में विजयूल फंक्शन के लिए रेटिनल स्ट्रक्चरल बैरियर के रूप में स्थापित किया। शोध कर्ताओं के मुताबिक अगर आम भाषा में यह कहा जा सकता है कि अध्ययन के परिणाम मधुमेह के रोगियों में आंखों की रोशनी के नुकसान के उपचार , रोकथाम) में मदद करेंगे। डायबिटिक रेटिनोपैथी रेटिना की छोटी रक्त वाहिकाओं को नुकसान के कारण होती है। रेटिना में द्रव के रिसाव से मैक्युला सहित आसपास के ऊतक में सूजन आ जाती है। डीएमई (डायबिटिक मैक्यूलर एडिमा) मधुमेह रेटिनोपैथी वाले लोगों में दृष्टि हानि का सबसे आम कारण है। इन रक्त वाहिकाओं को बढ़ने से रोकने और लीक हुए रक्त को नियंत्रित करने में मदद के लिए एंटी-वीईजीएफ दवाओं के इंजेक्शन की एक श्रृंखला को आंखों के पीछे दिया जाता है। यह इलाज कई लोगों में केंद्रीय दृष्टि को संरक्षित करने में अत्यधिक प्रभावी है। संवहनी एंडोथेलियल ग्रोथ फैक्टर (वीईजीएफ) एक सिग्नलिंग प्रोटीन है, जो नए रक्त वाहिकाओं के विकास को बढ़ावा देता है। कोशिकाओं और ऊतकों को रक्त की आपूर्ति को पुनस्थापित करता है, जब वे रक्त के संचलन के कारण ऑक्सीजन युक्त रक्त से वंचित होते हैं। इस अध्ययन में एंटी-वीईजीएफ थेरेपी ईएलएम के अवरोध प्रभाव को बहाल करती है। बाहरी सीमित झिल्ली (ईएलएम) एक संरचना है जो फोटोरिसेप्टर को संरेखित रखने के लिए कंकाल के रूप में कार्य करती है।
यह अध्ययन वर्ष 1966 में ब्लडरेटिनल बैरियर की खोज के पांच दशकों के अंतराल के बाद आया है। इस शोध अध्ययन में प्रो . अपजीत कौर, विभागाध्यक्ष, नेत्र विज्ञान और प्रो. एएमहदी, विभागाध्यक्ष,बायोकैमिस्ट्री इस वैज्ञानिक प्रकाशन में सहलेखक हैं। प्रो. सक्सेना ने इस विषय पर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, यूके और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, यूएसए में व्याख्यान दिया है।

Previous articleट्रॉमा, बचाव, उपचार एव प्रबंधन किताब का लोकार्पण
Next articleवायु प्रदूषण में अधिक समय तक रहने से बढ़ता है कोविड-19 से मौत का खतरा

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here