ऐसे होता है Covid का जीनोम सीक्वेनसिंग टेस्ट

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लखनऊ।कोरोना के डेल्टा प्लस वैरिएंट की पुष्टि के लिए सैंपल की जीनोम सीक्वेसिंग लगातार बढ़ती जा रही है। लोगों में इस तकनीक को लेकर लोगों में जिज्ञासा भी बढ़ी है। यह सीक्वेसिंग कोरोना जांच से कहीं ज्यादा जटिल कार्य होती है। इसमें वायरस के डीएनए को सैंकड़ों टुकड़ों में तोड़ दिया जाता है, उसके बाद इसकी सीक्वेंसिंग कर सॉफ्टवेयर के माध्यम से ये पता किया जाता है कि यह दुनिया के किस वैरिएंट से मेल खा रहा है। इसके चलते इसमें एक सप्ताह से 15 दिन तक का समय लगता है।
केजीएमयू की माइक्रोबायॉलजिस्ट सुरुचि शुक्ला ने कहना है कि इसमें सबसे पहले जिस कोरोना वायरस की सीक्वेंसिंग का पता करना होता है कि उस सैंपल के आरएनए से डीएनए बताते हैं। इसके बाद उस डीएनए को छोटे टुकड़े करते हैं। ये टुकड़े सैंपल साइज पर निर्भर करते हैं जो 200 से 500 तक या उससे ज्यादा भी हो सकते हैं। इसे वायरस को एंप्लिफाई करना भी कहते हैं। इसके बाद उन टुकड़ो की अलाइनिंग होती है यानी एक साथ उनका एक सीक्वेंस बनाया जाता है। फिर इसी सीक्वेंस को बायोइंफॉर्मेटिक्स सॉफ्टवेयर पर डालते हैं। इस सॉफ्टवेयर पर दुनिया भर में जितने भी वायरस है उनका सीक्वेंस मौजूद होता है। अब यह सीक्वेंस जिस सीक्वेंस से मैच होता है। इस वायरस की पहचान उसी वैरिएंट के रूप में की जाती है।
इसलिए लगता है इतना समय
डॉ सुरुचि ने बताया कि जीन सीक्वेंसिंग में वायरस को आरएनए से डीएन में कनवर्ट करने में दो दिन लगते हैं। इसके बाद एंप्लिफाई करने में दो से तीन दिन लगते हैं। बायोइंफॉर्मेटिक्स सॉफ्टवेयर में उस वैरिएंट की पहचान के लिए जो अंतिम चरण होता है उसमें भी लगभग दो दिन लगते हैं। इसीलिए कम से कम सात दिन का समय जांच में लगता है। सीक्वेंसिंगशहर में केजीएमयू में औसत 100 सैंपल की रोज सीक्वेंसिंग होने लगी है। इसमें कुल सैंपल में से केजीएमयू कुछ सैंपल छांटकर उसकी सीक्वेंसिंग कर रहा है। जिससे ये पता किया जा सके कि डेल्टा प्लस वैरिएंट या कोई और वैरिएंट तो मरीजों में नहीं पाया जा रहा है। वैक्सीन के लिए भी वैरिएंट का पता करना बहुत ही जरूरी है।

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