ग़ज़ल – मुहब्बत से जो मिलता है सियासत दे नहीं सकती

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मुहब्बत से जो मिलता है सियासत दे नहीं सकती,
करो तुम जोश खुद पैदा इनायत दे नहीं सकती।

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बहारों ने बनाये हैं मेरे गुलशन में क्या मंजर,
हमें अब ये हवाएं भी जहानत दे नहीं सकती।

अरे ! तुम यार कैसे हो समय पर काम ना आते,
हमें तुम पे भरोसा है नदामत दे नहीं सकती।

अकेले हैं चले आओ बहुत ग़मगीन हैं हम भी,
तुम्हारा साथ हम देंगे अलामत दे नहीं सकती ।

बढाओ हाथ तुम आगे मिटा डालो सभी दूरी,
मिलान में जो मज़ा है वो खिलाफत दे नहीं सकती।

अगर “आभा” को आना है ख़ुशी से आये मेरे घर ,
मुझे है फख्र उस पर अब अदावत दे नहीं सकती।

– “आभा”

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