लखनऊ। अक्सर देखा गया है कि लोगों में हेपेटाइटिस ए और ई दूषित पानी व खाद्य पदार्थ के सेवन से होता है, लेकिन यह संक्रमण एक सप्ताह से 15 दिन में स्वत: ठीक हो जाता है, लेकिन मरीज व उनके तीमारदार अपनी मर्जी से मरीज का भोजन पर तमाम तरह की प्रतिबंध लगा देते हैं। उबला खाना देना के साथ अन्य खान पान पर तमाम तरह की रोक लगा देते है, जबकि खानपान में सख्ती की आवश्यकता नहीं होती है। अक्सर यह परहेज मरीज के स्वास्थ्य के लिए घातक हो सकता है।
यह बात किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के गेस्ट्रो इंट्रोलॉजी विभाग के प्रमुख डॉ. सुमित रुंगटा ने शनिवार को पत्रकार वार्ता में दी। विभाग में आयोजित पत्रकार वार्ता में उन्होंने कहा कि संक्रमण का पता चलने पर परिजन सबसे पहले मरीज को परहेज वाला खाना देना शुरू कर देते हैं। इससे शरीर में पोषक तत्वों की कमी होने लगती है। लोग हल्दी, तेल, घी, प्रोटीन वाले खाद्य पदार्थ को नहीं देते हैं। इससे मरीज का वजन कम होने लगता है, जबकि बाजार की वस्तुओं से परहेज करें। घर का बना पौष्टिक भोजन लें। किसी भी प्रकार के भोजन का परहेज न करें।
डॉ. सुमित ने बताया कि नेशनल हेपेटाइटिस प्रोग्राम केजीएमयू में वर्ष 2021 से चल रहा है। इसमें हेपेटाइटिस संक्रमण की पहचान व इलाज मुफ्त मुहैया कराया जा रहा है। अब तक 25000 संक्रमितों को मुफ्त इलाज मुहैया कराया गया। जिसमें 10 हजार हेपेटाइटिस सी के मरीज हैं। जबकि 15000 बी के मरीज हैं।मौजूदा समय में केजीएमयू में 2000 हेपेटाइटिस संक्रमितों का इलाज चल रहा है।
डॉ. प्रीतम दास ने बताया कि हेपेटाइटिस बी व सी खून, संक्रमित के साथ सेक्स करने, दूषित वस्तुओं के संपर्क के माध्यम से एक से दूसरे इंसान में फैलता है। हेपेटाइटिस बी में सभी संक्रमितों को इलाज की जरूरत नहीं होती है, जिन मरीजों में वायरस एक्टिव होता है।
उन्हें ही इलाज मुहैया कराया जाता है। बाकी मरीजों को छह-छह माह पर जांच के लिए बुलाया जाता है। हेपेटाइिस बी व सी लिवर को नुकसान पहुंचाता है। लिवर सिरोसिस तक हो सकता है। हेपेइाटिस के इलाज तय समय में बंद हो जाता है। लेकिन सिरोसिस का इलाज चलता रहता है। डा. श्यान मलाकर ने बताया कि संक्रमित मरीज के परिजनों को वैक्सीन लगवाने की सलाह दी जाती है। ताकि उन्हें संक्रमण से बचाया जा सके।
लक्षण
बुखार, थकान, जोड़ों में दर्द, सिरदर्द, शरीर में चक्कते पड़ना, भूख में कमी, उल्टी महसूस होना और कभी-कभी पाचन संबंधी परेशानी होती है। फ्लू सिंड्रोम के रूप में कुछ मरीजों में समस्या देखने को मिलती है। जिसके बाद त्वचा और श्लेष्म झिल्ली का पीली हो जाती है। जिससे मरीज पीलिया की चपेट में आ जाता है।