सिजोफ्रेनिया – इसमें रोगी सच और कल्पना के बीच का अंतर नहीं समझ पाता। यह अत्यंत गम्भीर किस्म की मानसिक बीमारी है। रोगी भारी मानसिक पीड़ा से गुजरता है। वह अपने ही विचारों में खोया रहता है। उसका मन किसी भी काम में नहीं लगता है और न ही उसे लोगों से मिलना-जुलना अच्छा लगता है। हर व्यक्ति को वह शक की निगाह से देखता है। जैसे उसके आस-पास के लोग उसके खिलाफ षडय़ंत्र रच रहे हों। उसे अजीबो-गरीब डरावनी आवाजे सुनाई पड़ती हैं, डरावनी परछाइयां दिखाई पड़ती हैं। इन सबसे घबरा कर वह हिंसा और आत्महत्या जैसे कदम तक उठाने की कोशिश करता है।
रोगी धीरे-धीरे स्वयं के प्रति उदासीन होता जाता है। यहां तक कि वह दिनचर्या के काम भी ठीक से नहीं कर पाता है। सामान्य किस्म के सिजोफ्रेनिया के मरीज गुमसुम और चुपचाप रहते हैं, कई बार तो उनकी हालत बच्चों जैसी भी हो जाती है, लेकिन गम्भीर किस्म के सिजोफ्रेनिया के रोगी हिंसक और विद्रोही हो जाते हैं। कभी-कभी वे न केवल खुद के लिए, बल्कि दूसरों के लिए भी खतरनाक हो जाते हैं। ऐसे में वे खुद को नुकसान पहुंचाने या आत्महत्या जैसे प्रयास भी कर सकते हैं।
सिजोफ्रेनिया के क्या हैं कारण ?
कुछ वर्षों पहले तक इस बीमारी का वास्तविक कारण पता नहीं था, लेकिन मानव मस्तिष्क और व्यवहार पर किए गए आधुनिक शोध से पता चलता है कि यह बीमारी मस्तिष्क की रासायनिक संरचना एवं कार्य-व्यवहार में आए खास प्रकार के बदलाव के कारण होती है। यही नहीं, शोध यह भी कहते हैं कि मस्तिष्क में पाए जाने वाले स्नायु रसायन (न्यूरोकेमिकल्स)-डोपेमाइन और सेरोटोना के स्तर में परिवर्तन की वजह से भी यह बीमारी होती है। यह बीमारी तनाव के कारण नहीं होती है, लेकिन जिस व्यक्ति के अंदर आनुवांशिक तौर पर यह बीमारी होने की आशंका होती है, उसमें तनाव के कारण ही यह उभर कर बाहर आ जाती है।
कई बार ऐसी कोई घटना, जिससे व्यक्ति को शॉक लगे, उस परिस्थिति में भी वह सिजोफ्रेनिया की चपेट में आ सकता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अविवाहित पुरुष नौकरी से सम्बन्धित परेशानियों, दोस्तों एवं परिवार द्वारा नीचा दिखाने पर हीनभावना का शिकार होने के कारण भी कई बार सिजोफ्रेनिया की चपेट में आ जाते हैं।
किन्हें होती है सिजोफ्रेनिया की बीमारी ?
माता-पिता में किसी एक को यह बीमारी होने पर उनके बच्चे को यह बीमारी होने की आशंका 15 से 20 प्रतिशत तक होती है, जबकि माता-पिता दोनों को यह बीमारी होने पर बच्चे को यह बीमारी होने की आशंका 60 प्रतिशत तक हो सकती है। जुड़वा बच्चों में से एक को यह बीमारी होने पर दूसरे बच्चे को भी यह बीमारी होने की आशंका शत-प्रतिशत होती है। सिजोफ्रेनिया की बीमारी आम तौर पर युवावस्था में खास तौर पर 15-16 साल की उम्र में ही शुरू हो जाती है। कुछ लोगों में यह बीमारी ज्यादा तेजी से बढ़ती है और धीरे-धीरे गम्भीर रूप धारण कर लेती है।
सिजोफ्रेनिया मानसिक बीमारी है –
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सिजोफ्रेनिया को युवाओं का सबसे बड़ी क्षमतानाशक यानी डिसएब्लर बताया है। विश्व की 10 सबसे बड़ी अक्षम बनाने वाली बीमारियों में सिजोफ्रेनिया को भी शामिल किया गया है। यह एक ऐसी मानसिक स्थिति है, जो न सिर्फ रोगी की कार्यक्षमता को प्रभावित करती है, बल्कि उसके परिजनों के लिए भी एक सिरदर्द बन जाती है। यह ज्यादातर युवाओं को उस वक्त प्रभावित करती है, जब उनकी तरक्की और कार्य करने की क्षमता शिखर पर होती है। अक्सर सिजोफ्रेनिया को लोग युवावस्था की स्वाभाविक समस्या या युवाओं की सनक मानने की भूल कर बैठते हैं।
खुदकुशी की प्रवृत्ति बढ़ाती है सिजोफ्रेनिया –
खंडित मानसिकता अथवा सिजोफ्रेनिया के मरीजों में आत्महत्या की प्रवृति अधिक होती है और विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि इनमें दस में से चार खुदकुशी की कोशिश करते हैं। विश्व सिजोफ्रेनिया दिवस के मौके पर मनोचिकित्सकों ने कहा कि सिजोफ्रेनिया के मरीजों की अनदेखी करना खतरनाक हो सकता है, क्योंकि अगर समय पर उनका इलाज नहीं हुआ तो वे अपने ही हाथों अपने जीवन को खत्म कर सकते हैं। अनुमान है कि भारत की करीब एक प्रतिशत आबादी इस गम्भीर मानसिक बीमारी से ग्रस्त है और हर एक हजार वयस्क लोगों में से करीब सात लोग इस बीमारी से पीडि़त होते हैं।
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