लखनऊ। प्राचीन काल से ही मानवजाति बीमारियों से अभिशापित रहा है। एक बीमारी जो लगातार मानवजाति को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभावित कर रहा है, उसे टी.बी. यानि क्षय रोग कहते है। इस बीमारी का वर्णन वैदिक काल में भी मिलता है और इसे क्षय रोग कहा गया है। टी.बी. के बारे में आधुनिक मेडिसिन के जनक हिप्पोक्रेट्स ने भी समान व्याख्या की थी। रार्बट कॉच ने 24 मार्च 1882 को टी.बी. के जीवाणु की खोज की और यह खोज टी.बी. को समझने और इलाज में मील का पत्थर साबित हुई। इसलिये टी.बी. के बीमारी को कॉच की बीमारी भी कहते है। इस खोज की याद में हर साल 24 मार्च को हम विश्व टी.बी. दिवस के रूप में मनाते है। वर्ष 1943 से पहले जब टी.बी. की कोई दवायें नहीं थी तो टी.बी. का इलाज मुख्यत: अच्छा भोजन और अच्छी चिकित्सकीय देखभाल और शुद्ध हवा द्वारा होता था जिसे आयुर्वेद में वर्णित है इसे बाद में सेनेटेरिया इलाज के नाम से जाना जाना गया।
यह टी.बी. कन्ट्रोल के लिये आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है। टी.बी. की पहली दवा स्ट्रेप्टोमाइसिन की खोज वैक्समैन नामक वैज्ञानिक ने वर्ष 1943 में की थी। उसके बाद टी.बी. की और अच्छी दवायें जैसे कि रिफैम्पिसिन, आइसोनियाजिड तथा अन्य दवाओं की खोज हुई जिसके कारण हम टी.बी. को विकसित देशों में पूरी तरह से कन्ट्रोल करने के नजदीक आ गये थे। परन्तु एचआईवी नामक बीमारी के आने के कारण विकशित देशों में टी.बी. की बीमारी दोबारा बढ़ने लगी। टी.बी. की बढ़ती संख्या देखकर डब्ल्यूएचओ ) ने टी.बी. को वर्ष 1993 में वैश्विक आपातकाल घोषित कर दिया।
विश्व की लगभग एक तिहाई और भारत की आधी जनसंख्या टी.बी. से संक्रमित है
टी.बी. एक प्रमुख वैश्विक स्वास्थ्य समस्या है। वर्ष 2014 में सम्पूर्ण विश्व में एक करोड़ टी.बी. के नये मरीज पाये गये जिनमें से कुल 15 लाख मौतें हुई। टीबी के कुल वैश्विक मामलों में से 58 फीसदी मामले सिर्फ दक्षिण पूर्वी एशिया व पश्चिमी प्रशान्त क्षेत्र में पाये गये। डब्ल्यूएचओ रिपोर्ट के अनुसार 2014 में भारत में दुनिया के एक चौथाई मामले पाये गये। टी.बी. मरने वाला हर पांचवा व्यक्ति भारतीय होता है। भारत में हर 3 मिनट में टी.बी. से दो मौतें होती है (एक हजार प्रतिदिन)। इसीलिये टी.बी. को अत्यधिक खतरनाक व जानलेवा बीमारी मानी जाती है। टीबी की बीमारी का मुख्य जीवाणु माइकोबैक्टिरियम ट्यूबरकुलोसिस से होता है।
साधारण टीबी के अतिरिक्त अब एक नये प्रकार की टीबी देखने में आयी है, जिसे मल्टीड्रग रेजिस्टेन्ट ट्ठएमडीआर) टीबी कहते है। यह प्रकार टीबी के इलाज में प्रयोग होने वाली मुख्य दवइयां जैसे कि रिफैम्पिसिन अथवा आइसोनियाजिड बेअसर हो जाती है। इसके इलाज के लिये अधिक समय, पैसा व दवाइयों की आवश्यकता पड़ती है। एमडीआर टीबी विश्व में खासतौर पर भारत में एक जटिल समस्या बनती जा रही है। डब्ल्यूएचओ के रिपोर्ट के अनुसार 2014 में टीबी के कुल मामलों में लगभग 3 लाख मामले एमडीआर टीबी के थे। भारत में भी कुल मामले लगभग एक लाख के करीब थे। एमडीआर टीबी से ग्रसित लोगों में इलाज की समय सीमा बढ़कर 18 से 24 महीनों की कर दी जाती है।
भारत सरकार टी.बी. की बीमारी से लड़ने के लिये पूरी तरह से कटिबद्ध है –
वर्ष 1962 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय टी.बी. कार्यक्रम की शुरूआत की थी। जो वर्ष 1992 में विफल घोषित कर दिया गया। राष्ट्रीय टी.बी. कार्यक्रम के विफल होने के प्रमुख कारण थे, बजट में कम धन का आवंटन, दवाइयों की कमी, सूक्ष्मदर्शी जांच की खराब गुणवत्ता, कमजोर संस्थागत व्यवस्था और सहयोग इत्यादि। अंतत: पुनरीक्षित राष्ट्रीय क्षय रोग नियंत्रण कार्यक्रम को शुरू किया गया जो कि पूरी तरह से 1997 में कार्यरत हुआ। यह कार्यक्रम डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारित जिसमें टी.बी. के मरीज को स्वास्थ्य कर्मचारी के देखरेख में टी.बी. की दवा खिलाई जाती है, पर इससे मरीज की लगातार दवा चलते रहना सुनिश्चित हो जाता है। भारत द्वारा टी.बी. को समाप्त नहीं कर पाने के कई कारण है, जैसे कि टी.बी. का जीवाणु कई वर्षों तक व्यक्ति के अन्दर निष्क्रिय अवस्था में बिना किसी लक्षण के रह सकता है, तथा अनुकूल परिस्थिति के आने पर यह पुन: सक्रिय होकर बीमारी को पैदा करता है।
सामाजिक और मानवीय कारण जो अनुकूल परिस्थिति को बढ़ावा देते हैं उनमें प्रमुख है- कुपोषण, एचआईवी, मधुमेह, महिलाओं में कम उम्र में गर्भधारण और बार-बार गर्भधारण, परदाप्रथा, गरीबी, भीड़, धूम्रपान तथा अन्य नशे, साफ-सफाई की कमी, स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ न ले पाना, अनियमित दवा लेना आदि। अनियमित दवा लेने के कारण तथा एमडीआर व एक्सडीआर टीबी जैसी घातक परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती है। टी.बी. की दवा का बेअसर होना मानवनिर्मित है। खराब गुणवत्ता, असम्पूर्ण और अनियमित दवा की आपूर्ति, इलाज का बीच-बीच में रूक जाना जैसी वजहों से टी.बी. की दवायें बेअसर होने लगी है।
सालों से भारत सरकार ने आरएनटीसीपी के साथ मिलकर लोगों मंे जागरूकता स्वास्थ्य को बढ़ाने और टी.बी. को नियंत्रित करने के लिये कई महत्वपूर्ण कदम उठाये हैं। जिससे वर्ष 2006 तक पूरे भारत में डॉट्स लागू हो पाया। टी.बी. की दवाओं के बढ़ते बेअसर होने के कारण वर्ष 2010 में डॉट्स प्लस कार्यक्रम को एमडीआर टी.बी. के इलाज के लिये शुरू किया गया। अब डब्ल्यूएचओ ने 2016 से 2030 के लिये सस्टेनेबल डेवलेपमेन्ट गोल्स ट्ठएसडीजी) योजना का प्रारम्भ किया है।
राष्ट्रीय क्षय नियंत्रण कार्यक्रम में प्रतिदिन 15000 मरीजों को मुफ्त में देखा जा रहा है और जिनमें से 3500 मरीजों का इलाज शुरू किया जाता है। पिछले दो दशक में इलाज में तीन गुनी सफलता मिली है जो कि 25 फीसदी से बढ़कर 86 फीसदी हो गयी है और 42 फीसदी मौतों में कमी आयी है। टीबी से होने वाली मृत्यु प्रतिवर्ष 4 लाख से घटकर प्रतिवर्ष 3 लाख हो गयी है। टी.बी. और एमडीआर टी.बी. को पता लगाने के लिये कई आधुनिक विधियां खोजी जा चुकी है। टी.बी. और एमडीआर टी.बी. के लिये कई नई दवाइयां भी खोजी जा रही है। भारत सरकार ने ”निक्षय” को सफलता पूर्वक सम्मिलित किया है, यह एक केस आधारित ऑनलाइन साफ्टवेयर है जिसमें अधिक से अधिक मरीजों की पहचान होती है और उनका तुरन्त इलाज शुरू हो जाता है।
गैर सरकारी संगठनों के सहयोग से टी.बी. का इलाज सुदूर गांव-गांव तक पहुचाया जा चुका है। आरएनटीसीपी ने पब्लिक प्राइवेट मिक्स सेवा की शुरूआत की है, जिससे मरीजों की पहचान, जागरूकता और उचित इलाज सम्भव होगा। इस भयानक रोग से मुक्ति के लिये राजनीतिक इच्छा शक्ति से लेकर सामाजिक जागरूकता में बदलाव की जरूरत है।