लखनऊ। फेफड़ों के आंतरिक रोगों के करीब 60 प्रतिशत रोगियों की पहचान गलत की जाती है। खास कर फेफड़े की इंटर्सटीशियल लंग डिजीज (आईएलडी) बीमारी की पहचान काफी मुश्किल होती है। इस बीमारी में ज्यादातर डॉक्टर जागरूकता के अभाव में मरीजों की टीबी देते रहते हैं। यही वजह है कि सही समय से डायग्नोसिस न हो पाने से तीन से चार साल के भीतर ही मरीज की मौत हो जाती है। यह जानकारी चेस्ट केयर एंड रीसर्च सोसाइटी के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने बृहस्पतिवार को चेस्ट केयर रीसर्च सोसाइटी व उत्तर प्रदेश ट्¬ुबर कुलोसिस एसोसिएशन के तत्वावधान में आयोजित होने वाली कार्यशाला के संबंध में दी। पत्रकारवार्ता में विशेषज्ञ डा. टीपी सिंह भी मौजूद थे।
होटल क्लार्क अवध में आयोजित पत्रकार वार्ता में उन्होंने बताया कि इंटर्सटीशियल लंग डिजीज में 140 बीमारियों का एक समूह पाया जाता है। इनमें आइडियोपैथिक पल्मोनरी फाइब्राोसिस (आईपीएफ) जैसी कुछ बीमारियां ऐसी भी होती हैं, जो लंग कैंसर जितनी ही खतरनाक होती है। प्रो. प्रसाद ने बताया कि इंटर्सटीशियल लंग डिजीज फेफड़ों के कोशिकाओं भी चपेट में ले लेती है। इसमें फेफड़े सिकुड़ने लगते हैं। इस बीमारी में आंतरिक वॉल पर इंजरी आैर सूजन होने लगती है। अधिक समय तक दिक्कत होने के कारण धीरे-धीरे शरीर में ऑक्सीजन की कमी होने लगती है।
प्रो. प्रसाद ने बताया कि अगर किसी को 6 माह से अधिक से खांसी, सांस फूलने की समस्या व अधिक थकान महसूस होती है आैर जांच में टीबी, अस्थमा व सीओपीडी (क्रानिक लंग डिजीज) की पुष्टि नहीं होती है, तो तुरंत जांच करानी चाहिए। उन्होंने बताया कि अधिकतर डॉक्टर फेफड़ों की आईएलडी बीमारी की पहचान नहीं कर पाते। इस बीमारी में रेडियोलॉजी का बेहद अहम रोल है। फेफड़ों की अन्य बीमारियों की तरह इसमें एक्स-रे जांच से स्पष्ट पता नहीं चल पाता। ऐसे में सीटी स्कैन जांच सबसे कारगर होती है। इस कार्यशाला में एसजीपीजीआई, केजीएमयू, पीजीआई चंडीगढ, पटेल चेस्ट इंस्टीट¬ूट गुजरात समेत देश भर के विशेषज्ञ हिस्सा लेंगे।
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